आशापुरा मां - सभी की मनोकामनाएं पूरी करने वाली चौहान वंश की कुलदेवी।

डूंगरपुर : जिले के साबला पंचायत समिति से 16 किमी की दूरी पर गामडी निठाउवा में स्थित है चौहान वंश की कुलदेवी मां आशापुरा । 

शक्ति पीठ के रूप में शुमार वागड़ के निठाउवा में स्थापित मां आशापुरा पूरे वागड़ की नहीं मेवाड़, मारवाड़ और गुजरात के साथ साथ मध्यप्रदेश के हजारोंं-हजार भक्तों की आराध्य देवी है। नवरात्र के नौ दिन मां की भक्ति में पूरा वागड़ लीन रहता है। 

अत्यंत चमत्कारी है मां आशापुरा की मूर्ति : आशापुरा मां की मूर्ति कई मायनों में चमत्कारिक है। भक्तो के अनुसार यहां मान्यता है कि लकवा से ग्रसित रोगी यहां मां के दरबार में आकर बिल्कुल ठीक होकर अपने पैरो पर घर जाता है। इसके अलावा यहां पर श्रद्धालु संतान प्राप्ति, भूत प्रेत निवारण, अनेक असाध्य बिमारियों के निवारण, नौकरी, धंधा आदि हेतु मनोतिया लेते है और सिद्धि प्राप्त करते है । कई लोगों के ऐसी असाध्य बिमारिया भी ठीक हुई है, जिन्हे डॉक्टरों ने नही बचने का कह दिया था । ऐसे लोगों के संताने हुई है जिनको डॉक्टर ने संताने नही होने का प्रमाण दे दिया था। जो लोग पुरी श्रद्धा से मनोतियॉ लेते है उनकी मनोकामनाए माता पुरी करती है ।

वागड़ में शासक मोदपाल ने कराई थी आशापुरा मां की प्राण प्रतिष्ठा : भक्तो के अनुसार सम्राट पृथ्वीराज चौहान की आराध्य कुलदेवी जगदंबा आशापुरा की मूर्ति की प्रतिष्ठा विक्रम संवत 1380 में शासक मोद पाल ने नाडोल (मारवाड) से यहां लाकर कराई थी। 

सर्वप्रथम आमेर के चौहान ने तारागढ़ में की थी मां की प्रतिष्ठा : इसकी सर्वप्रथम प्रतिष्ठा आमेर के चौहान राजा अणोराज ने तारागढ़ में विक्रम संवत 1180 से 1208 के मध्यकाल में करवाई थी। विक्रम संवत 1236 में सम्राट पृथ्वीराज तृतीय दिल्ली के राजा बने। तब इस मूर्ति को दिल्ली ले जाकर निगम बोध घाट पर पुरोहित गुरुराम से इसकी प्रतिष्ठा करवाई। संवत 1249 में पृथ्वीराज के निधन हो जाने एवं दिल्ली में इस्लामी शासक हो जाने पर पृथ्वीराज के भाई हरराज, जो कुंवर गोविंदराम के संरक्षक थे, वे संवत् 1277 में इस प्रतिमा को रणथम्भौर ले गए व प्राण प्रतिष्ठा करवाई। राजा हमीर के बाद रणथम्भौर में भी इस्लामी शासक हो गया। तब उनके वंशज सांचौर (मारवाड) ले गए एवं नाडोल में प्राण प्रतिष्ठा करवाई। कालांतर इसी वंश में मोद पाल नाडोल के शासक बने। चौदहवीं शताब्दी में मुस्लिम हमलवारों ने नाडोल पर आक्रमण कर दिया। नाडोल की सुरक्षा खतरे में पड़ गई। मोद पाल के 32 पुत्र थे इनमें 28 पुत्र लडाई में काम आए। काकाजी गंगदेव व मोद पाल ने मिलकर वीरता दिखाई। मोद पाल के शरीर पर 84 घाव लगे। लेकिन माताजी कि कृपा से स्मरण करते ही सब घाव ठीक हो गए। तब से आशापुरा माता को दुखहरण माता भी कहा जाने लगा। 

वागड़ में आशापुरा मां की प्रतिष्ठा होने के पीछे है दिलचस्प लोक कथा : विक्रम संवत् 1352 जेठ सुदी अष्टमी को आशापुरा माता ने मोद पाल को सपना दिया कि मेरी प्रतिमा को रथ में रखकर मालवा की ओर चल दो, जहां पर रथ रुक जाए वहां पर शासन जमा लेना। मोद पाल अपने चार बेटों व काका जैतसिंह के साथ सेना लेकर रथ के साथ रवाना हुए। मंदसौर (मध्यप्रदेश) में रथ का धरा टूट गया वहां शासन जमाया व माताजी जीरण में विरज मान हुई। आज भी वहां धरे की पूजा होती है। दुश्मनों ने वहां पर भी हमला बोल दिया। नया रथ बनाकर मोद पाल आगे बढ़े तो बांसवाड़ा जिले के पीपलखूंट के पास सांडलपोर के पास जंगलों के बीच गुजरते समय रथ का पहिया टूट गया फिर वहां पर किला बनाया व कुछ समय तक शासन किया। सांडलपोर में आज भी वहां पर किला मौजुद है। 

मोदपाल ने माताजी की प्रतिमा को रथ में रखकर वागड़ की और प्रस्थान किया। विक्रम संवत् 1380 भाद्रपद सुदी नवमी को गामडी के पास रथ धरती में उतर गया। मोद पाल रथ के पीछे कुछ दूरी पर चल रहे थे। सेना का पूरा लश्कर मोद पाल के रूकने के स्थान व गामडी के बीच चल रहा था। माताजी का रथ रूकने की सूचना पर मोद पाल जहां थे वहीं थम गये। वहीं पर मोदपुर गांव बस गया है। जो आज भी उसी नाम से आसपुर से 15 किलोमीटर दूर विजवामाता मार्ग पर स्थित है। तब से माता आशापुरा गामडी निठाउवा में विराजमान है। तभी से मोद पाल वंशज माताजी की पूजा-अर्चना करते आ रहे है। 

यहाँ पर दुर-दुर से लोग दर्शन के लिए आते हैं। डुंगरपुर जिले में स्थित आशापुरा माता वह धाम है जिसके बारे में मान्यता है कि इस स्थान पर जिसने भी आस्था से अपना शीश झुकाया है माता ने उसकी सभी आस्थाएं पूरी की हैं. इसलिए माता को आशापुरा मां के नाम से जाना जाता है।


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